शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

क्षणिकाएं


आता यकीं नहीं उसको, मुलजिम की बेगुनाही का
दीवारों से पूछता है फिरता, किस्सा गवाही का 
नज़र मिला ना पाया हाकिम फैसले के बाद 
रंग उड़ा-उड़ा सा था लगा, उसकी सियाही का


बादलों के ये किनारे ज़र्द जैसे पड़ रहे हैं
ये पल वक़्त की चट्टान पे मूरत कोई गढ़ रहे हैं 
तुम्हें अब भी यकीं नहीं कि साए हमारे बोलते हैं
देखो सूरज डूबते ही ये अँधेरे से लड़ रहे हैं.
दीपक मशाल 



16 टिप्‍पणियां:

  1. वाह वाह...सुन्दर क्षणिकाएं

    स्वागत है...वापसी का....पर उम्मीद और जाग गयी है..अब :)

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  2. वाह क्या बात है बहुत सुन्दर...बहुत ही खुबसूरत लिखा है

    जवाब देंहटाएं
  3. देर आये दुरुस्त आये. सुन्दर क्षणिकाएं लाये.

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  4. बहुत बढ़िया ।
    लेकिन इन्हें क्षणिकाएं कहें , या मुक्तक ?

    जवाब देंहटाएं
  5. तुम्हें अब भी यकीं नहीं कि साए हमारे बोलते हैं
    देखो सूरज डूबते ही ये अँधेरे से लड़ रहे हैं.
    सुन्दर!

    जवाब देंहटाएं
  6. @दराल सर, मुक्तक के मानकों से धोखाधड़ी नहीं कर सकता.. :)
    आप सबका शुक्रिया हौसला बढ़ाने के लिए..
    --

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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