आता यकीं नहीं उसको, मुलजिम की बेगुनाही का
दीवारों से पूछता है फिरता, किस्सा गवाही का
नज़र मिला ना पाया हाकिम फैसले के बाद
रंग उड़ा-उड़ा सा था लगा, उसकी सियाही का
बादलों के ये किनारे ज़र्द जैसे पड़ रहे हैं
ये पल वक़्त की चट्टान पे मूरत कोई गढ़ रहे हैं
तुम्हें अब भी यकीं नहीं कि साए हमारे बोलते हैं
देखो सूरज डूबते ही ये अँधेरे से लड़ रहे हैं.
दीपक मशाल
वाह वाह...सुन्दर क्षणिकाएं
जवाब देंहटाएंस्वागत है...वापसी का....पर उम्मीद और जाग गयी है..अब :)
बेहतरीन..
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है बहुत सुन्दर...बहुत ही खुबसूरत लिखा है
जवाब देंहटाएंkhubsurat!!
जवाब देंहटाएंDono kshanikayen bahut hee sundar hain!
जवाब देंहटाएंदेर आये दुरुस्त आये. सुन्दर क्षणिकाएं लाये.
जवाब देंहटाएंसुन्दर क्षणिकाएँ
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया ।
जवाब देंहटाएंलेकिन इन्हें क्षणिकाएं कहें , या मुक्तक ?
बेहतरीन....
जवाब देंहटाएंबहुत ही खुबसूरत अहसास.
जवाब देंहटाएंसुंदर विचार , बधाई
जवाब देंहटाएंतुम्हें अब भी यकीं नहीं कि साए हमारे बोलते हैं
जवाब देंहटाएंदेखो सूरज डूबते ही ये अँधेरे से लड़ रहे हैं.
सुन्दर!
@दराल सर, मुक्तक के मानकों से धोखाधड़ी नहीं कर सकता.. :)
जवाब देंहटाएंआप सबका शुक्रिया हौसला बढ़ाने के लिए..
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जवाब देंहटाएंwaah bahut dino baad padhne ko mila aapka...
जवाब देंहटाएंdono kshanikayaen behatareen hain....lekin pehli wali jyada behtar lagi....
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