शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

बेचैनी / दीपक मशाल (लघुकथा)

दोनों परिवारों में दोस्ती बहुत पुरानी या गहरी तो नहीं थी लेकिन वक़्त बीतने के साथ-साथ बढ़ती जा रही थी। महीने में कम से कम एक बार दोनों एक दूसरे को खाने के बहाने, मिलने के लिए अपने घर आमंत्रित कर ही लेते थे, इस बार दूसरे वाले ने किया था। 
सुरक्षा के उद्देश्य से दोनों की ही बिल्डिंग में इस तरह का सिस्टम था कि जब तक मेजबान खुद बाहर निकल कर नीचे मुख्य द्वार तक लेने ना आये तब तक कोई मेहमान भीतर नहीं आ सकता था। पहले दोस्त ने परिवार सहित बिल्डिंग के नीचे पहुँच कर फोन किया 
- हैलो! हाँ जी, पहुँच गए हैं गेट पर 
- जी अभी दो मिनट में नीचे आता हूँ 
- जी ठीक है
मेजबान मित्र निकलने को चप्पल पहन ही रहा था कि पत्नी ने टोका 
- आपको क्या जल्दी पड़ी रहती है भागकर तुरंत जाने की, याद नहीं जब भी उनके घर आते हैं दो मिनट का कह कर दस मिनट में दरवाजे पर आते हैं। आज थोड़ी देर उन्हें भी इंतज़ार करने दीजिये, आराम से जाइये
चप्पलें उतार वो सोफे में धँस गया, लेकिन फिर एक मिनट भी न गुजरा होगा कि उठकर चहलकदमी करने लगा। बेचैनी बढ़ती जा रही थी, किसी तरह पत्नी से बोला 
- मैं सोच रहा था कि वो जान-बूझकर थोड़े करते होंगे, और फिर करते भी हों तो हम उनके जैसे क्यों..... 
बात ख़त्म भी ना हुई थी कि पत्नी बोल पड़ी 
- जी, वही मुझे लगा कि फिर उनका छोटा बच्चा भी तो बाहर सर्दी में खड़ा होगा, आप जल्दी जाइये 

और दोनों मुस्कुरा दिए.

7 टिप्‍पणियां:

  1. अपनेपन की बेचैनी.... आहट है कि दूर से सुनाई दे जाती है ...

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  2. काश । हम ऐसा सोच पाते .... कहानी आदर्शवादी परम्परा पर चली गई, आदर्श य़र्थाथ से हमेशा अलग होता हैं
    http://savanxxx.blogspot.in

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