आता यकीं नहीं उसको, मुलजिम की बेगुनाही का
दीवारों से पूछता है फिरता, किस्सा गवाही का
नज़र मिला ना पाया हाकिम फैसले के बाद
रंग उड़ा-उड़ा सा था लगा, उसकी सियाही का
बादलों के ये किनारे ज़र्द जैसे पड़ रहे हैं
ये पल वक़्त की चट्टान पे मूरत कोई गढ़ रहे हैं
तुम्हें अब भी यकीं नहीं कि साए हमारे बोलते हैं
देखो सूरज डूबते ही ये अँधेरे से लड़ रहे हैं.
दीपक मशाल